Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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विट्ठलदास ने सुमन को विधवाश्रम में गुप्त रीति से रखा था। प्रबंधकारिणी सभा के किसी सदस्य को इत्तिला न दी थी। आश्रम की विधवाओं से उसे विधवा बताया था। लेकिन अबुलवफा जैसे टोहियों से यह बात बहुत दिनों तक गुप्त न रही। उन्होंने हिरिया को ढूंढ निकाला और उससे सुमन का पता पूछ लिया। तब अपने अन्य रसिक मित्रों को भी इसकी सूचना दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि उन सज्जनों की आश्रम पर विशेष रीति से कृपादृष्टि होने लगी। कभी सेठ चिम्मनलाल आते, कभी सेठ बलभद्रदास, कभी पंडित दीनानाथ विराजमान हो जाते। इन महानुभावों को अब आश्रम की सफाई और सजावट, उसकी आर्थिक दशा, उसके प्रबंध आदि विषयों से अद्भुत सहानुभूति हो गई थी। रात-दिन आश्रम की शुभकामना में मग्न रहते थे।

विट्ठलदास बड़े संकट में पड़े हुए थे। कभी विचार करते कि इस पद से इस्तीफा दे दूं। क्या मैंने ही इस आश्रम का जिम्मा लिया है? कमेटी में और कितने ही मनुष्य हैं, जो इस काम को संभाल सकते हैं। वह जैसा उचित समझेंगे, इसका प्रबंध करेंगे, मुझे अपनी आंखों से तो यह अत्याचार न देखना पड़ेगा। कभी सोचते, क्यों न एक दिन इन दुराचारियों को फटकारूं? फिर जो कुछ होगा, देखा जाएगा। लेकिन जब शांत चित्त होकर देखते, तो उन्हें सब्र से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूझता। हां, उन लोगों से बड़ी रुखाई से बातचीत करते, उनके प्रस्तावों की उपेक्षा किया करते और अपने भावों से यह प्रकट करना चाहते थे कि मुझे तुम लोगों का यहां आना असह्य है। किंतु गरज के बावले मनुष्य देखकर भी अनदेखी कर जाते हैं। दोनों सेठ विनय और शील की साक्षात् मूर्ति बन जाते। तिवारीजी ऐसे सरल बन जाते, मानों उन्हें क्रोध आ ही नहीं सकता। इस कूटनीति के आगे विट्ठलदास की अक्ल कुछ काम न करती!

एक दिन प्रातःकाल विट्ठलदास इन्हीं चिंताओं में बैठे हुए थे कि एक फिटन आश्रम के द्वार पर आकर रुकी। उसमें से कौन लोग उतरे? अबुलवफा और अब्दुललतीफ।

विट्ठलदास मन में तिलमिलाकर रह गए। अभी सेठों ही का रोना था कि एक और बला आ पड़ी। जी में तो आया कि दोनों को दुत्कार दूं, पर धैर्य से काम लिया।

अबुलवफा ने कहा– आदाब अर्ज है, बंदानवाज। आज कुछ तबीयत परेशान है क्या? वल्लाह आपका ईसार देखकर रूह को सुरूर हो जाता है खुशनसीब है कौम, जिसमें आप जैसे खादिम मौजूद हैं। एक हमारी खुदगरज, खुशनुमा कौम है, जिसे इन बातों का एहसास ही नहीं। जो लोग बड़े नेकनाम हैं, वह भी गरज से पाक नहीं, क्यों मुंशी अब्दुललतीफ साहब?

अब्दुललतीफ—जनाब, हमारी कौम की कुछ न कहिए! खुदगरज, खुदफरोश, खुदमतलब, कजफहम, कजरौ, कजर्बी जो कुछ कहिए, थोड़ा है। बड़ों-बड़ों को देखिए, रंगे हुए सियार हैं, रिया का जामा पहने हुए। आपको जात मसदरे बरकात है। ऐसा मालूम होता है कि खुदाताला ने मलायक में से इंतखाब करके आपको इस खुशनसीब कौम पर नाजिल किया है।

अबुलवफा– आपकी पाकनफसी दिलों में खामख्वाह असर डालती है। क्यों आपके यहां सोजनकारी और बेलबूटे के काम तो होते ही होंगे? मेरे एक दोस्त ने सोजनकारी की कई दर्जन चादरों की फरमाइश लिख भेजी है। हालांकि शहर में कई जगह यह काम होता है, लेकिन मैंने यह खयाल किया कि आश्रम को प्राइवेट काम करने वालों पर तरजीह होनी चाहिए। आपके यहां नमूने मौजूद हों, तो दिखाने की तकलीफ कीजिए।

विट्ठलदास– मेरे यहां ये सब काम नहीं होते।

अबुलवफा– मगर होने की जरूरत है। आप दरियाफ्त कीजिए, कुछ मस्तूरात जरूर यह काम जानती होंगी। हमें ऐसी कोई उजलत नहीं है, फिर हाजिर होंगे। एक, दो, चार, दस बार आने में हमको इंकार नहीं है। आप अपना सब कुछ निसार कर रहे हैं, तो क्या मुझसे इतना भी न होगा? मैं इन मुआमलों में कौमी तफरीक मुनासिब नहीं समझता।

विट्ठलदास– मैं इस मेहरबानी के लिए आपका मशकूर हूं। लेकिन कमेटी ने यह फैसला कर दिया है कि यहां इस किस्म का कोई काम न कराया जाए। इस वजह से मजबूर हूं।

यह कहकर विट्ठलदास उठ खड़े हुए। अब दोनों सज्जनों को लौट जाने के सिवा और कोई उपाय न सूझा। मन में विट्ठलदास को गालियां देते हुए फिटन में सवार हो गए।

लेकिन अभी फिटन की आवाज कान में आ रही थी कि सेठ चिम्मनलाल की मोटरकार आ पहुंची। सेठजी शान से उतरे। विट्ठलदास से हाथ मिलाया और बोले– क्यों बाबू साहब! नाटक के विषय में आपने क्या राय की? शकुंतला नाटक भर्थरी का सबसे उत्तम ग्रंथ है। इसे अंग्रेज बहुत पसंद करते हैं। जरूर खेलिए। कुछ पार्ट याद कराए हों, तो मैं भी सुनूं।

कभी-कभी कठिनता में हमको ऐसी चालें सूझ जाती हैं, जो सोचने से ध्यान में नहीं आतीं। विट्ठलदास ने सोचा था कि इन सेठजी से कैसे पिंड छुड़ाऊं, लेकिन कोई उपाय न सूझा। इस समय अकस्मात् उन्हें एक बात सूझ गई। बोले– जी नहीं, इस नाटक के खेलने की सलाह नहीं हुई। मैंने इस मुआमिले में बड़े साहब से राय ली थी। उन्होंने मना कर दिया। समझ में नहीं आता ये लोग पोलिटिक्स का क्या अर्थ लगाते हैं। आज बातों-ही-बातों में मैंने बड़े साहब से आश्रम के लिए कुछ वार्षिक सहायता की प्रार्थना की, तो क्या बोले कि मैं पोलिटिकल कार्यों में सहायता नहीं दे सकता। मैं उनकी बात सुनकर चकित हो गया। पूछा, आप आश्रम को किस विचार से पोलिटिकल संस्था समझते हैं। इसका केवल यह उत्तर दिया कि मैं इसका उत्तर नहीं देना चाहता।

चिम्मनलाल के मुख पर हवाइयां उड़ने लगीं। बोले– तो साहब ने आश्रम को भी पोलिटिकल समझ लिया है!

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